कोलकाता उच्च न्यायालय एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह कहा कि एक अभियुक्त का त्वरित निस्तारण का जो अधिकार है वह अनुच्छेद 21 के तहत एक गारंटीकृत मौलिक अधिकार है ।
क्या है पूरा मामला - इस मामले में पति और पति के घरवालों के ऊपर भारतीय दंड संहिता की धारा 498A, 304B, 302 व 34 में एफ आई आर दर्ज होता है।
एफ आई आर दर्ज होने के बाद पुलिस आरोप पत्र में से 302 आईपीसी को निकाल देती है और आरोप पत्र सिर्फ भारतीय दंड संहिता की धारा 498A, 304B, व 34 में लगाती है।
उसके बाद जब न्यायालय में आरोप का निर्धारण हो रहा होता है तो वहां सत्र न्यायालय 304B और 34 आईपीसी को निकाल देता है अब सिर्फ पति के ऊपर भारतीय दंड संहिता की धारा 498A ही लगी होती है इस वजह से इस मामले को मजिस्ट्रेट के पास विचारण के लिए भेज दिया जाता है।
उसके बाद यह मामला काफी धीरे-धीरे विचारण किया जाता है जिसे पति को दिक्कत होती है तो वह उच्च न्यायालय की शरण में जाता है और उच्च न्यायालय में गुहार लगाता है कि उसके मामले में कुल 17 गवाह है लेकिन उनमें से सिर्फ एक गवाह की ही गवाही दर्ज हो पाई है उसके मामले में काफी ज्यादा लापरवाही हो रही है इस वजह से जो उच्च न्यायालय है मजिस्ट्रेट के कोर्ट को यह निर्देश कर दें कि मामले को छह महीनों के अंदर समाप्त किया जाए और त्वरित निस्तारण किया जाए।
उसके बाद उच्च न्यायालय पूरे मामले को देखता है और उच्च न्यायालय कहता है कि हम यह पाते हैं कि इस मामले में जो विपक्षीपक्ष है उसका सुना जाना आवश्यक नहीं है हम याचिकाकर्ता को ही सुनकर निर्णय दे सकते हैं क्योंकि यहां जो याचिकाकर्ता के द्वारा मांग की जा रही है त्वरित निस्तारण के लिए वह एक अभियुक्त का भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक गारंटीकृत मौलिक अधिकार है और ऐसे में उच्च न्यायालय मजिस्ट्रेट के कोर्ट को यह निर्देश देता है कि इस मामले को त्वरित निस्तारित किया जाए और मामले में तेजी से कार्यवाही किया जाए और प्रयास किया जाए कि मामला 8 महीनों के अंदर निस्तारित कर दिया जाए।
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